Friday, January 19, 2007

wo chaand kabhi fir khila nahi

बड़ी सूनी रात आयी थी
हर तरफ अँधेरा छाया था
सारी उम्मीदें खोयी थी
हर लम्हा बस वो ठहरा था
ना कोई उम्मीद किसीको
ना कोई आशा आंखों में
सुनसान रातके अँधेरोने ही
जगह बनायी थी मन में
दिल में इतना दर्द था उभरा
जिन्दगी पथराई थी
भूल गए थे होगा सहरा
रात कुछ ऐसी आयी थी
तभी अचानक हवा बही थी
एक बादल आगे निकला
दुखके साये नही गए पर
उम्मीद लिए महताब खिला
रात वोही थी, गम वोही थे
दर्द भी दिल से गया नही
पर सुन्दर रजनी बन गयी
वो रात जिसकी कोई सुबह नही
हररोज़ ही रातें आती है
उस रात सी कोई रात नही
उस रात को जैसा चांद खिला
वो चांद कभी फिर खिला नही

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1 Comments:

Anonymous Anonymous said...

Well said.

2:14 AM  

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